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{{KKRachna
|रचनाकार=अनामिका सिंह 'अना'
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatNavgeet}}
<poem>
रिक्त उदर में जले अँगीठी,
आँत करे उत्पात ।
हर कातर स्वर करे अनसुना
विकट पूस की रात
कौन्तेय को लघुतर करने
खींचें खड़ी लकीर ।
दानवीर कम्बल वितरित कर,
खिंचवाएँ तस्वीर ।
आँगन में है कुहरा, घर में
औंधी पड़ी परात ।
प्यास न अधरों की बुझ पाई,
भरा नयन में नीर ।
खरपतवार उगे हैं जब भी,
रोपी आस उशीर ।
नीति पिण्ड भी नित नव रह-रह,
करते उल्कापात ।
आश्वासन ही आश्वासन पर,
देख रहा गणतंत्र ।
हाकिम फूँकें लालकिले से,
विफल हुए वे मंत्र ।
वादों की नंगी तकली पर,
सूत रहे हैं कात ।
</poem>
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|रचनाकार=अनामिका सिंह 'अना'
|अनुवादक=
|संग्रह=
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रिक्त उदर में जले अँगीठी,
आँत करे उत्पात ।
हर कातर स्वर करे अनसुना
विकट पूस की रात
कौन्तेय को लघुतर करने
खींचें खड़ी लकीर ।
दानवीर कम्बल वितरित कर,
खिंचवाएँ तस्वीर ।
आँगन में है कुहरा, घर में
औंधी पड़ी परात ।
प्यास न अधरों की बुझ पाई,
भरा नयन में नीर ।
खरपतवार उगे हैं जब भी,
रोपी आस उशीर ।
नीति पिण्ड भी नित नव रह-रह,
करते उल्कापात ।
आश्वासन ही आश्वासन पर,
देख रहा गणतंत्र ।
हाकिम फूँकें लालकिले से,
विफल हुए वे मंत्र ।
वादों की नंगी तकली पर,
सूत रहे हैं कात ।
</poem>