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|अनुवादक=लिपिका साहा
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<poem>
क्या लिखूँ चुपके से ?
या फिर रुठकर हर रोज़ मरती रहूँ
पुराने पोखर में ?

क्या कह दोगे तुम ?
तीर तुम्हारा निशाने पर नहीं बैठता, राजमार्ग पर जोकर नहीं
सुनसान पुस्तक-मेला
क्या है तुम लोगों के पास ?

मैं सदा से देवताओं की प्रिय सखी रही
पर हर रोज़ मैं फ़सल उगाने में
होती हूँ नाकामयाब ।

क्या है छिपा ?
जो शहनाई बजी थी — जल चुकी है ।
बनारसी साड़ी सड़ गई है कबकी ।
दूँ भी क्या मैं तुम्हें ?

परमेश्वर के गेह से ला पाई हूँ
यह मामूली जिस्म
ग्रहण करोगे ?

'''मूल बांगला से अनुवाद : लिपिका साहा'''
</poem>
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