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<poem>
हर बार उल्टोडाँगा क्रासिंग पर खड़े होकर
याद आ जाता है — पास ही है ईश्वरचन्द्र निवास
शान्त सुर्ख़ फ़र्श, भारी सीढ़ियों के पायदान
और कुछ युवा पेड़-पौधे ।
मन ही मन पुकारूँ,
शंख बाबू ! ओ शंखबाबू ! —
यद्यपि उचित नहीं है, फिर भी जपती हूँ ।

अँगुलियों में क़लम पकड़कर उसका नाम रखती हूँ,
शंखबाबू;
बादल छाने पर, उसकी छाया को पुकारूँ ।
समग्र ऐसा तो नहीं
परन्तु सम्भाषण को तो आयु मिलती है ।

'''मूल बांगला से अनुवाद : लिपिका साहा'''
</poem>
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