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शर्त / शंख घोष / मीता दास

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<poem>
संन्यासी बन चुके हो समूचे ?
पूरी तरह ।

त्याग सकते हो सब ? राज़ी हो ?
उपेक्षा को उपेक्षा से ही
सहज ही लौटा सकते हो जड़ों तक ?

खोल दिया है समस्त द्वार ? और
ताल वीथिका ने निहित शीत की रात में देखी है आग
उस स्वच्छ जल में ?

तब आओ, इस बार, सब कुछ पकड़ो और खींचो
याद रखो, किसी भी हालत में और कहीं भी नही है तुम्हारा त्राण
जीत गए हो तुम शर्त ।


'''मूल बांग्ला से अनुवाद : मीता दास'''
</poem>
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