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बेघर सदा रहे हैं ये घर बनानेवाले ।तारों की छत खुली हैधरती बनी बिछौनाइस बेरहम शहर में मस्ती में डूब सोनाअँधेरों में गा रहे दीया जलानेवाले ।शिखर नभ को छू रहे हैंसुख से हैं अघाएकिसका बहा पसीनाये कभी न जान पाए ।लू के थपेड़े खाकरछाँव दिलाने वाले ।आज हैं यहाँ पर -कल कहीं और है ठिकानाबची है साँस जब तक गैरों के घर बसाना ।सोएँगे नींद गहरीन जाग पाने वाले ।-0-'''26 अप्रैल, 2010'''
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