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खड़ा हुआ है कृषक सामने
दुख-द्रवित हैं उसके दृग,
ज़ोर-ज़ोर से सांसें चलतीं
डगमग-डगमग करते पग ।
वह अकाल-पीड़ित है, खाने
को पाता पेड़ों की छाल,
घोर कालिमा सुख पर छाई
काया है केवल कंकाल ।
1851अन्तहीन कष्टों ने उसकोकुचल दिया, कर दिया विमूक,उसकी आँखें पथराई हैंऔर हृदय उसका सौ टूक । धीमे चलता जैसे कोईले पलकों पर निद्रा-भार,वह जाता उस ओर जहाँ परउसकी बोई हुई जुआर । रखता है अपने खेतों केऊपर अपनी अपलक डीठ,और खड़ा होकर गाता हैएक बिना स्वरवाला गीत । "ओ जुआर के खेत, उगो तुम,जल्दी-जल्दी पको, बढ़ो,और जोतने, बोने, सिंचितकरने का श्रम सफल करो । मुझे एक रोटी दो, जिसकीनाप न मुझसे हो पाए,मुझे एक रोटी दो, जिससेसारी पृथ्वी ढक जाए । सबकी सब मैं खा जाऊँगा,क्यों छोड़ूँगा कण भर भी,नहीं भूख ने छोड़ी ममताबीवी औ’ बच्चों पर भी !"
'''अँग्रेज़ी से अनुवाद : हरिवंशराय बच्चन'''
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