भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
दुख की ऐसी नींद कि जैसे जान ही न हो देह में
तभी एक अकतीत - सा (अजीब-सा, कुछ-कुछ कसैला-सा) सवाल चित में उठा
तुम आए ही कब थे
जो मैं तुम्हारे जाने का शोक मना रही हूँ