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|संग्रह=सोच को दृष्टि दो / मोना गुलाटी
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<poem>
शताब्दियाँ बीत गई हैं
हाथों में झण्डे उठाए : कि जब
हथेलियों में दाग़ पड़ गए हैं गहरे
कि अब मौसम बदलता ही
नहीं कभी ।

केवल रहता है धूप, छाँव और अन्धेरे का पहरा :
चौंधियाती हुई रौशनी और घुप अन्धेरे में
रास्ता टटोलते -टटोलते
आँखों के रंग फीके पड़ गए हैं ।

शब्दों, ध्वनियों व पदचापों से केवल रिसने की आवाज़
आती है :
कहीं नहीं सुनाई पड़ते आह्लादमय संगीत-सुर !

शताब्दियाँ बीत गई हैं
हथेलियों को बाँधे-बाँधे
आकाश
में फहराते हुए झण्डे; गुनते हुए
राष्ट्रीय धुन : कि
अब सुनाई नहीं देता
राष्ट्रीय धुन का आलाप या ढलती
शाम में उगता पक्षियों का कलरव ।

केवल गुज़रता है
आस-पास निरन्तर कोहराम, चीख़-चिल्लाहट : मातमी
संगीत और तेज़ सीटियों का शोर :

अब नहीं
सुनाई देती कोई भी राष्ट्रीय धुन
कहीं भी-कहीं भी :
शताब्दियाँ रीत रही हैं ।
</poem>
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