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<poem>
मन तो चाहे अम्बर छूना
पाँव धँसे हैं खाई ।
दूर खड़ी हँसती है मुझपर
मेरी ही परछाई ।

विश्वासों की पर्त खुली तो,
खुलती चली गई ,
सम्बन्धों की बखिया
स्वयं उधड़ती चली गई,
चूर हुए हम स्थितियों से
करके हाथापाई ।

इच्छाओं का कंचन - मृग
किस वन में भटक गया,
बतियाता था जो मुझसे,
वह दर्पण चटक गया,
अपने ही स्वर अब कानों को
देते नहीं सुनाई ।

परिवर्तन की जाने कैसी
उल्टी हवा चली,
धुआँ -धुआँ हो गई दिशाएँ
सूझे नहीं गली,
जमी हुई हर पगडण्डी पर
दुविधाओं की काई ।
</poem>
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