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खूँ ख़ूँ के दरिया में जब रंगों का गोता लगता है।
रंग हरा हो चाहे भगवा तब काला लगता है।
मरहम मलकर न्याय समझता ठीक हो गया हुआ अब शासन,
लेकिन गहरा ज़ख़्म जहाँ होता टाँका लगता है।
भ्रष्टाचारी पेड़ गजब ग़ज़ब है जड़ इसकी भारत में,दूर विदेशों में जाके जा के पर फल इसका लगता है।
नेताओं की भूख नहीं मिटती है अरबों खाकर,
खा-खाकर ज्यादा भारी भी मत हो जाना ‘सज्जन’,
केवल चार जनों का आख़िर में कंधा लगता है।
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