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हम मिले थे जिस में पहली बार वो लम्हा सनम,
वक्त वक़्त की काली घटाओं में चमकता रोज़ ही।
दिन गुज़रता भूलने की कोशिशों में, शाम को,
चूम कर तस्वीर तेरी मैं सिसकता रोज़ ही।
मोड़ पर फिर से वही राहें मिलें क्या शहर भी,
खोज में तेरी मेरे सँग -सँग भटकता रोज़ ही।
याद तेरी है तसव्वुर ज़लज़ले सीसा, ख़्वाब हैं तूफ़ान से,
रोज़ करता हूँ मरम्मत, घर दरकता रोज़ ही।
</poem>
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