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Kavita Kosh से
हम मिले थे जिस में पहली बार वो लम्हा सनम,
दिन गुज़रता भूलने की कोशिशों में, शाम को,
चूम कर तस्वीर तेरी मैं सिसकता रोज़ ही।
मोड़ पर फिर से वही राहें मिलें क्या शहर भी,
खोज में तेरी मेरे सँग -सँग भटकता रोज़ ही।
रोज़ करता हूँ मरम्मत, घर दरकता रोज़ ही।
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