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{{KKRachna
|रचनाकार=सुरजीत पातर
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
मर रही है मेरी ज़बान
क्योंकि ज़िन्दा रहना चाहते हैं
मेरी ज़बान के लोग
ज़ि्न्दा रहना चाहते हैं
मेरी ज़बान के लोग
इस शर्त पे भी
कि ज़बान मरती है तो मर जाए
क्या आदमी का ज़िन्दा रहना
ज़्यादा ज़रूरी है
या ज़बान का ?
हाँ, जानता हूँ,
आप कहेंगे
इस शर्त पे जो आदमी ज़िन्दा रहेगा
वो ज़िन्दा तो होगा
मगर क्या वो आदमी होगा ?
आप मुझे जज़्बाती करने की कोशिश ना कीजिए
आप ख़ुद बताइए
अब जब
दाने दाने के ऊपर
खाने वाले का नाम भी
आपका ख़ुदा अंग्रेज़ी में ही लिखता है
तो कौन से बेरहम वालदैन चाहेंगे
कि उनका बच्चा
एक डूब रही ज़बान के सफ़ीने पर बैठा रहे ?
जीता रहे मेरा बच्चा
मरती है तो मर जाए
आपकी बूढ़ी ज़बान ।
</poem>
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|संग्रह=
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मर रही है मेरी ज़बान
क्योंकि ज़िन्दा रहना चाहते हैं
मेरी ज़बान के लोग
ज़ि्न्दा रहना चाहते हैं
मेरी ज़बान के लोग
इस शर्त पे भी
कि ज़बान मरती है तो मर जाए
क्या आदमी का ज़िन्दा रहना
ज़्यादा ज़रूरी है
या ज़बान का ?
हाँ, जानता हूँ,
आप कहेंगे
इस शर्त पे जो आदमी ज़िन्दा रहेगा
वो ज़िन्दा तो होगा
मगर क्या वो आदमी होगा ?
आप मुझे जज़्बाती करने की कोशिश ना कीजिए
आप ख़ुद बताइए
अब जब
दाने दाने के ऊपर
खाने वाले का नाम भी
आपका ख़ुदा अंग्रेज़ी में ही लिखता है
तो कौन से बेरहम वालदैन चाहेंगे
कि उनका बच्चा
एक डूब रही ज़बान के सफ़ीने पर बैठा रहे ?
जीता रहे मेरा बच्चा
मरती है तो मर जाए
आपकी बूढ़ी ज़बान ।
</poem>