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|संग्रह=जंगल में झील जागती / हरभजन सिंह / गगन गिल
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<poem>
माँ मेरी हुई सौतेली

जब से मिट्टी में जागा उजाला
लुच्ची नज़र से देखें मुझे हमउम्र
पड़ोसिनें दूतियाँ
उछल-उछल गिरती बातें गली में
जैसे भट्टी में भुनते हों दाने
माँ मेरी हुई सौतेली

दादी की चिता जैसी रोज़ माँ जलती है
लपट उसकी खाट से बाबुल तक चलती है
“घर तेरे जंगली जानवर
इसे जंगल में भेज”
राजा से कहे कैकेयी

खाने को दिए अब टुक्कर भी गिनती है
फटे-पुराने से नया कुरता नापती है
लोगों से कहती है, बस, थोड़े ही दिन की है
नहाऊँगी मैं गंगा
बाँटूँगी मैं मिठाई

दूध की नदी माँ पानी की हो गई
पानी की धारा भी रेत में खो गई
बिछुड़कर रोने वाली रखकर भी रो दी
गर्म-गर्म तवे से उतारकर खिलाने वाली
बात करे एक ही
बासी बहुत बासी ।

'''पंजाबी से अनुवाद : गगन गिल'''
</poem>
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