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{{KKRachna
|रचनाकार=सुरजीत पातर
|अनुवादक=योजना रावत
|संग्रह=
}}
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<poem>
मेरे भीतर चलती है एक गुफ़्तगू
जहाँ लफ्ज़ों में ढलता है मेरा लहू
जहाँ मेरी बहस है मेरे साथ ही
जहाँ वारिस के पुरखे खड़े रूबरू
मेरे भीतर आवाज़ें तो हैं बेपनाह
पर माथे पे मेरी अक्ल का तानाशाह
सब आवाज़ें सुनूँ, कुछ चुनूँ, फिर बुनूँ
फिर बयान अपना कोई जारी करूँ
मेरे भीतर चलती है एक गुफ़्तगू
जहाँ लफ्ज़ों में ढलता है मेरा लहू
</poem>
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|रचनाकार=सुरजीत पातर
|अनुवादक=योजना रावत
|संग्रह=
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मेरे भीतर चलती है एक गुफ़्तगू
जहाँ लफ्ज़ों में ढलता है मेरा लहू
जहाँ मेरी बहस है मेरे साथ ही
जहाँ वारिस के पुरखे खड़े रूबरू
मेरे भीतर आवाज़ें तो हैं बेपनाह
पर माथे पे मेरी अक्ल का तानाशाह
सब आवाज़ें सुनूँ, कुछ चुनूँ, फिर बुनूँ
फिर बयान अपना कोई जारी करूँ
मेरे भीतर चलती है एक गुफ़्तगू
जहाँ लफ्ज़ों में ढलता है मेरा लहू
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