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किस हवा ने उडाया उड़ाया इस तरहकि सूखे पत्तों की तरह पानी पे पर तैर रहा हूँ।जल्दबाज़ी का के किस सैलाब ने बहा डाला इस तरह
कि अपनों को देखते हुए बह रहा हूँ।
छोटी-सी लहर भी बहा सकती है मुझे
कोई जाल चाहिए ही नहीं !जो भी लगा सकेगा गर्दन पे काँटे पर कांटे मुझेजाल चाहिए ही नहीं !फिर भी साजिशों के काले हाथ
गर्दन मरोड़ने के लिए तैनात किए हुए हैं
फिर भी उन सभी का पहाड़ बना के सुरंग खोदने के लिए
कुछ नज़रें नजरें उठी हुई हैं।
किस वसन्त वसंत पे पतझड़ बुलाकर मुरझाए होंगे वे मेरे निर्दोष फूल किस राह को भूल कर चले होंगे वे मेरी उदास नज़रे नजरें!
जाने, और कितने दिन परदेश में जीना होगा इस तरह
पहाड़ से गिरा हुआ पत्थर ही होने पे पर भी
कहीं रुकने की कोई जगह होती शायद।
दिल ही तो है इन्सान इंसान का,
नाजुक है
इसे अब कहाँ ले जा कर जाकर रखना होगा ?  
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