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रहता है मशग़ला जहां बस वाह वाह का / ‘अना’ क़ासमी
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07:13, 31 दिसम्बर 2024
<poem>
रहता है मशग़ला जहाँ बस वाह-वाह का
मैं भी हूँ
इस
इक
फ़कीर उसी ख़ानक़ाह का
सद शुक्र हुस्न और शबे-बेपनाह का
ये सिलसिला बढ़े तो तिरी रस्मो-राह का
मजबूरो-
नातवाँ1
नातवाँ
कोई इंसाँ नज़र न आयेगुज़रेगा यां से क़ाफिला आलमपनाह का</poem>
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वीरेन्द्र खरे अकेला
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