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इनकार मोहब्बत का करेगा तू कहाँ तक आएगा कभी नाम मेरा मिरा तेरी जुबाँ तक सीने में सुलगती रही इक आग अजब-सी उठता हुआ देखा न कभी मैंने धुवाँ तक मिल जुल के चलो प्यार का संसार बसाएँ तनहा न बना पाएँगे हम एक मकाँ तक ये राह मोहब्बत की, मोहब्बत का सफ़र है इस राह पे ले चल तू मुझे चाहे जहाँ तक शातिर हो बड़े , प्यार की शतरंज में तुम भी देखेंगे न खाओगे भला मात कहाँ तक निकली है सदा मेरे तड़पते हुए दिल से पहुँचेगी जमाने में हर इक पीरो-जवाँ तक कहते हो 'रक़ीब' अपना हबीब आज मुझे तुम ये बात तो अच्छी है मगर सिर्फ़ बयाँ तक  
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