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<poem>
जला रही समाज को पड़ोस की अगन ।
धुँआ न आग कहीं मगर बहुत जलन ।

कहाँ गयी मनुष्य की तमाम वेदना ?
जली नहीं चिता अभी चुरा लिए कफन।

झलक रही निगाह में दरिंदगी यहाँ,
शिकार हो रहीं अनेक माँ- सुता - बहन ।

गया समय कटा दिए ख़ुशी - ख़ुशी गला,
मगर न टूटने दिया लिया हुआ वचन ।

करें विचार बैठकर तमाम शक्तियाँ,
बढ़े उदात्त भावना, बचा रहे वतन ।
</poem>
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