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|रचनाकार=शंकरानंद
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
काग़ज़ पर जो बनाई जाती है
वह ज़मीन पर उतरते हुए
कुछ और हो जाती है
जैसे मनुष्य के हित में
शुरू हुआ कार्यक्रम
कब मनुष्य विरोधी हो जाता है
इसका एहसास तक नहीं होता
जलता हुआ जंगल
एक दिन वसन्त को राख कर देता है
सूखती हुई नदी
विलुप्त हो जाती है
ढहते हुए पहाड़
गेंद की तरह लुढ़कने लगते हैं
इस तरह एक नई शृंखला
तैयार होती है और
अच्छा भला शहर
एक दिन हरसूद होकर डूब जाता है !
</poem>
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|संग्रह=
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काग़ज़ पर जो बनाई जाती है
वह ज़मीन पर उतरते हुए
कुछ और हो जाती है
जैसे मनुष्य के हित में
शुरू हुआ कार्यक्रम
कब मनुष्य विरोधी हो जाता है
इसका एहसास तक नहीं होता
जलता हुआ जंगल
एक दिन वसन्त को राख कर देता है
सूखती हुई नदी
विलुप्त हो जाती है
ढहते हुए पहाड़
गेंद की तरह लुढ़कने लगते हैं
इस तरह एक नई शृंखला
तैयार होती है और
अच्छा भला शहर
एक दिन हरसूद होकर डूब जाता है !
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