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<poem>
डूबते वक़्त सही यार समझ ले मुझको
तेरे हाथो की हूँ पतवार समझ ले मुझको

पाँव चूमूँ हूँ तो पाज़ेब समझ सकता है
सर पर आ जाऊँ तो दस्तार समझ ले मुझको

मुझसे दूरी ही नहीं अपना घरौंदा भी बना
अब मैं गिरने को हूँ दीवार समझ ले मुझको

क़त्ल होना है मुझे सुब्ह के होते होते
रात के वक़्त का अंधियार समझ ले मुझको

तुझको ना भाऊँ तो हूँ चीख़ क़यामत की मगर
रास आ जाऊँ तो मनुहार समझ ले मुझको

अब तो आई है मुझे रस्म-ए-मुहब्बत की गरज
अब तो ऐ जान ! वफ़ादार समझ ले मुझको
</poem>
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