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Kavita Kosh से
<poem>
रात में देर से
मैं प्राग में ऐसे घूम रहा हूँ, मानो कोई सपना देख रहा हूँ
आकाश किसी कीमियागर की कुप्पी की तरह है —
जहाँ चमकीला सोना
नीली आग में पिघल रहा है,
चार्ल्स स्क्वायर चौराहे की ढलान पर
बिना किसी थकान के चढ़ जाता हूँ मैं
और पहुँच जाता हूँ वहाँ,
जहाँ कोने में,
डॉक्टर फ़ॉउस्ट का घर है ।
शैतान उन्हें खींचकर अपने साथ ले गया था नरक में ।
मैं फिर भी दस्तक दे रहा हूँ
उसी घर के दरवाज़े पर । ख़ुदा की क़सम,
इस शैतान को मैं हुण्डी लिखकर देने को तैयार हूँ,
मेरे खून से सही हस्ताक्षर बना दूँगा हुण्डी पर ।मैं उससे सोना -चाँदी नहीं चाहता, मैं अक़्ल और जवानी भी नहीं चाहता ।
अलगाव की वजह से मेरी कनपटी गरमा रही है ।
लानत है, भाई, लानत है
आख़िर खर्च ही कितना आएगा इसमें ?
मैं फिर से खटखटाता हूँ, बार-बार खटखटाता हूँ,
लेकिन उनका दरवाज़ा वैसा का वैसा बन्द है ।
ऐसा क्यों है, मुझे बताओ, दुष्टात्मा दुष्टात्माओ ?
मैं कुछ ज़्यादा तो नही माँग रहा हूँ ?
चीथड़ा-चीथड़ा हो चुकी इस आत्मा की क़ीमत
कुछ ज़्यादा तो नहीं माँग रहा ?
या फिर अब इसकी एक पैसा भी क़ीमत नहीं रही है इसकी अब ?
नीम्बू की तरह पीला चाँद