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|रचनाकार=चन्द्र त्रिखा
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|संग्रह=
}}
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गलत सदी में ग़लत सदी के लोग सामने आए हैं
एक सदी पहले आकर हम सचमुच ही पछताए हैं
हमने चंद लगाए नारे, सोचा था कुछ तो होगा
गुम्बद से टकरा कर लौटे इन नारों के साए हैं
छोड़ गई है भीड़ हमें सदियों पीछे, यूं लगता है
गली-गली जाने है, फ़िर भी लगता निपट पराए हैं
कहाँ चांद आया सूरज से समझौता करवाने को
मगर अंधेरे और उजाले आपस में टकराये हैं
</poem>
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गलत सदी में ग़लत सदी के लोग सामने आए हैं
एक सदी पहले आकर हम सचमुच ही पछताए हैं
हमने चंद लगाए नारे, सोचा था कुछ तो होगा
गुम्बद से टकरा कर लौटे इन नारों के साए हैं
छोड़ गई है भीड़ हमें सदियों पीछे, यूं लगता है
गली-गली जाने है, फ़िर भी लगता निपट पराए हैं
कहाँ चांद आया सूरज से समझौता करवाने को
मगर अंधेरे और उजाले आपस में टकराये हैं
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