भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
और जड़ देते हो मेरे पैरों में ग़रीबी की नाल
फिर भी तुम मेरे पिता, मेरे ईश्वर हो
धान की अनबुझ प्यासें जब मांगती माँगती हैं पानी
करता हूँ दिन की रात
रात को देता हूँ चकमा दिन का
तुम फिर-फिर फेंट देते हो मेरी कड़ी मेहनतें
दलदल की लिजलिजी कीच में
नहीं देते हो महादान किसी एक बूंद बूँद का
फिर भी तुम मेरे पिता हो, मेरे ईश्वर हो
अगर मैं मानना छोड़ दूँ तुम्हें,