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[[Category:ग़ज़ल]]
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मेरे क़द से वो इतना डर रहा था
मुझे अपने बराबर कर रहा था

वसीयत पढ़ के बेटे हँस रहे थे
पिता लाचार तिल-तिल मर रहा था

मछेरा जा रहा था पनियों में
किनारे पर खड़ा मैं डर रहा था

भिखारी डर रहे थे रोटियों पर
कि सारा शहर भोजन कर रहा था

अँधेरे ने पहन रक्खी थी अचकन
वो उसमें जुगनुओं को भर रहा था.
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