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नया पृष्ठ: '''लेखन वर्ष: २००५/२००७'''<br/><br/> जाफ़रानी आस्माँ में जब चाँद<br/> गुलाबी ब...
'''लेखन वर्ष: २००५/२००७'''<br/><br/>
जाफ़रानी आस्माँ में जब चाँद<br/>
गुलाबी बादलों के दुप्पटे ओढ़े<br/>
महकता है तो<br/>
तेरा एहसास मेरे बदन को<br/>
रुआँ-रुआँ छूने लगता है<br/>
एक अजीब मगर जानी-पहचानी ख़ुशबू<br/>
मेरी साँसों में<br/>
मेरी धड़कनों में घुलने लगती है,<br/>
तब ऐसा लगता है<br/>
तुम मेरे आस-पास हो, यहीं-कहीं…<br/><br/>
वह पहली शाम<br/>
जब उतरी हुई शाम के साए में<br/>
हम दोनों मिले थे<br/>
पहली बार रू-ब-रू मिले थे<br/>
तुमने मुझसे पूछा था<br/>
तुम्हारे दिल में कोई ख़ुशी होगी?<br/>
मैंने कहा था<br/>
धड़कनों की जगह सन्नाटा है, सुकून है<br/>
इस सबके आगे तो<br/>
ख़ुशी बहुत छोटी चीज़ है…<br/><br/>
मैं मन ही मन उलझा हुआ था<br/>
सैकड़ों सवाल मेरे आगे<br/>
क़तार बनाये खड़े थे,<br/>
क्या तुमसे पूछूँ, क्या न पूछूँ<br/>
कहीं तुम्हें मेरी किसी बात का बुरा लग जाये<br/>
विसाल का यह लम्हा हिज्र न हो जाये<br/>
एक यही डर-सा था मुझको…<br/><br/>
फिर तुम्हारी बात इक मोड़ मुड़ गयी<br/>
उस एक लम्हे में ऐसा लगा<br/>
मानो किसी ने दो ज़िन्दगियों को<br/>
एक ही तागे में बुन दिया हो,<br/>
शाम अपनी रोशनी समेट रही थी,<br/>
और तुमने कहा जाओ अब<br/>
वर्ना वार्डन आ जायेगी,<br/>
फिर किसी रोज़ मिल लेंगे<br/>
यह कहते-कहते भी हम<br/>
लगभग आधे घंटे और बैठे रहे…<br/><br/>
तुम्हारी चाय पिलाने ख़ाहिश<br/>
आज भी याद आती है,<br/>
उस दिन तो<br/>
तुम्हारे होस्टल की मेस खुली नहीं थी<br/>
फिर भी तुमने मुझसे पूछा था,<br/>
उसके बाद न हम बाहर कहीं मिले<br/>
और न कॉलेज में ही<br/>
तुम्हारा कॉलेज में यह आख़िरी साल था,<br/>
शायद बाहम बहाने कम पड़ गये थे<br/>
या तुम्हारी मम्मी ने<br/>
मेरी वो चिट्ठियाँ, वो कार्डस् देख लिए थे…<br/><br/>
मैं तुम्हारे कॉलेज अब भी जाता हूँ<br/>
वहाँ मेरा वही पुराना दोस्त रहता है<br/>
तुम्हारे बारे में हर बार पूछता है<br/>
और मैं हर बार एक नया बहाना बना देता हूँ उससे<br/>
इस बार मिलना मुझसे<br/>
तो इक मुकम्मल मुलाक़ात मिलना<br/>
यह आधी-अधूरी मुलाक़ातें<br/>
नहीं तो सीने के दर्द को और हवा देती हैं…<br/><br/>
जाफ़रानी आस्माँ में जब चाँद<br/>
गुलाबी बादलों के दुप्पटे ओढ़े<br/>
महकता है तो<br/>
तेरा एहसास मेरे बदन को<br/>
रुआँ-रुआँ छूने लगता है<br/>
एक अजीब मगर जानी-पहचानी ख़ुशबू<br/>
मेरी साँसों में<br/>
मेरी धड़कनों में घुलने लगती है,<br/>
तब ऐसा लगता है<br/>
तुम मेरे आस-पास हो, यहीं-कहीं…<br/><br/>
वह पहली शाम<br/>
जब उतरी हुई शाम के साए में<br/>
हम दोनों मिले थे<br/>
पहली बार रू-ब-रू मिले थे<br/>
तुमने मुझसे पूछा था<br/>
तुम्हारे दिल में कोई ख़ुशी होगी?<br/>
मैंने कहा था<br/>
धड़कनों की जगह सन्नाटा है, सुकून है<br/>
इस सबके आगे तो<br/>
ख़ुशी बहुत छोटी चीज़ है…<br/><br/>
मैं मन ही मन उलझा हुआ था<br/>
सैकड़ों सवाल मेरे आगे<br/>
क़तार बनाये खड़े थे,<br/>
क्या तुमसे पूछूँ, क्या न पूछूँ<br/>
कहीं तुम्हें मेरी किसी बात का बुरा लग जाये<br/>
विसाल का यह लम्हा हिज्र न हो जाये<br/>
एक यही डर-सा था मुझको…<br/><br/>
फिर तुम्हारी बात इक मोड़ मुड़ गयी<br/>
उस एक लम्हे में ऐसा लगा<br/>
मानो किसी ने दो ज़िन्दगियों को<br/>
एक ही तागे में बुन दिया हो,<br/>
शाम अपनी रोशनी समेट रही थी,<br/>
और तुमने कहा जाओ अब<br/>
वर्ना वार्डन आ जायेगी,<br/>
फिर किसी रोज़ मिल लेंगे<br/>
यह कहते-कहते भी हम<br/>
लगभग आधे घंटे और बैठे रहे…<br/><br/>
तुम्हारी चाय पिलाने ख़ाहिश<br/>
आज भी याद आती है,<br/>
उस दिन तो<br/>
तुम्हारे होस्टल की मेस खुली नहीं थी<br/>
फिर भी तुमने मुझसे पूछा था,<br/>
उसके बाद न हम बाहर कहीं मिले<br/>
और न कॉलेज में ही<br/>
तुम्हारा कॉलेज में यह आख़िरी साल था,<br/>
शायद बाहम बहाने कम पड़ गये थे<br/>
या तुम्हारी मम्मी ने<br/>
मेरी वो चिट्ठियाँ, वो कार्डस् देख लिए थे…<br/><br/>
मैं तुम्हारे कॉलेज अब भी जाता हूँ<br/>
वहाँ मेरा वही पुराना दोस्त रहता है<br/>
तुम्हारे बारे में हर बार पूछता है<br/>
और मैं हर बार एक नया बहाना बना देता हूँ उससे<br/>
इस बार मिलना मुझसे<br/>
तो इक मुकम्मल मुलाक़ात मिलना<br/>
यह आधी-अधूरी मुलाक़ातें<br/>
नहीं तो सीने के दर्द को और हवा देती हैं…<br/><br/>