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नया पृष्ठ: '''लेखन वर्ष: २००४'''<br/><br/> सोचा था दिन चढ़ेगा दोपहर तक<br/> तो सूरज की आग<br/>...
'''लेखन वर्ष: २००४'''<br/><br/>
सोचा था दिन चढ़ेगा दोपहर तक<br/>
तो सूरज की आग<br/>
सर्दियों के सर्द बादलों को ग़ुबार कर देगी<br/>
बहने लगेगा बदन में जमा हुआ लहू<br/>
और झपकने लगेंगी एक टुक अपलक पलकें<br/>
लेकिन ऐसा कुछ भी हुआ नहीं<br/><br/>

दिन दोपहर तो चढ़ा पर बादल नहीं छटे<br/>
कोहरा नहीं पिघला<br/>
उल्टे सूरज की आग जम गयी,<br/>
ठिठुर गयी…<br/>
सर्द हवा ने बुझा दिया दिन का सूरज<br/>
उतरने लगा शाम के आगोश में दिन<br/><br/>

आज शफ़क़ न गुलाबी न जाफ़रानी थी<br/>
बस नीला स्लेटी आकाश<br/>
अजीब उदासियों के साथ बैठा रहा<br/>
न जाने किसके इन्तिज़ार में…<br/><br/>