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देना-पाना / अज्ञेय

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दो?हाँ, दो<br>
बड़ा सुख है देना!<br>
देने में<br>
अस्ति का भवन नींव तक हिल जाएगा-<br>
पर गिरेगा नहीं,<br>
और फिर बोध यह लायेगा<br>
कि देना नहीं है नि:स्व होना<br>
और वह बोध,<br>
तुम्हें स्वतंत्रतर बनायेगा।<br>
लो? हाँ लो!<br>
सौभाग्य है पाना,<br>
उसकी आँधी से रोम-रोम<br>
एक नई सिहरन से भर जायेगा।<br>
पाने में जीना भी कुछ खोना,<br>
यों नि:स्व होना तो नहीं,<br>
पर है कहीं ऊना हो जाना,<br>
पाना अस्मिता का टूट जाना,<br>
वह उन्मोचन-यह सोच लो,<br>
वह क्या झिल पायेगा?<br><br>
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