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संवाद / अनूप सेठी

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आप यूँ ही खड़े हों
पता नहीं क्या सोचते हुए

दूर लोगों को जाते देख हाथ बढ़ा दें
बांह खिंचती चली जाए
फर्लांग दो फर्लांग
किसी के कँधे किसी के बाल किसी का बैग छूने
लोग अनमने अनजाने
व्यस्त अभ्यस्त
निकल जाएँ अपने अपने कामों से

खींच लें हाथ को वापस
अपनी देह के पास
पसीने से ज़रा सा भीगा हुआ

आएँ याद मित्र अपनी व्यस्तताओं में
एक सोच उभरने लगे
मित्रों को क्या क्या दुख होंगे
क्या क्या मजबूरियाँ

फिर छाती से बाँधकर हाथ
आप कहें यूँ ही नहीं खड़े थे
पता नहीं क्या सोचते हुए।


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