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बच्चे चौगानों में खेलते हैं
गृहणियाँ सामान ढोते ढोते थक जाती हैं
थकने के लिए सुबह फिर उठ खड़ी होती हैं
लोग पिता और पतियों की तरह दिखते हैं
घर की पीली रोशनी में
तफरीह में पसरे बाबुओं की तरह दाँत कुरेदते हैं
बूढ़े ऊबी हुई चौहद्दियों से बाहर निकल कर
सड़क किनारे बैंचों पर बैठते हैं
आती जाती बसों को देख देख कर थकने के लिए

अजन्मे बच्चे सारा कारोबार देखते हैं
उनके बस में नहीं है अजन्मे रहना।
(1991)

</poem>
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