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सरसिज-संकुल-सर दिशा व्यर्थ जिसमें शुक-पिक-स्वर घात न हो।
देखूं न कभीं गिरि-शिखर जहाँ पर निर्झर-नीर-निपात न हो ?"
आ प्रेम-पुरोहित ढूँढ़ रही बावरिया बरसाने वाली - क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली ॥51॥
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