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{{KKRachna
|रचनाकार=धीरज आमेटा ’धीर’
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अब इसी आस में जीना होगा
रात के बाद सवेरा होगा!

गुल कहीं और कहीं काँटा होगा
राह कैसी भी हो चलना होगा!

सर झुकाने से फ़क़त क्या होगा?
बेग़रज़ जो हो वो सजदा होगा!

इतना मुश्किल भी नहीं वस्ल ए खुदा
अपनी हस्ती को भुलाना होगा!

कल की सोचो तो भली ही सोचो
सोच अच्छी है तो अच्छा होगा!

"रब्त का फल है!" ज़रा सब्र करो
वक़्त के साथ ही मीठा होगा!

एक ही शर्त पे बाँटुंगा खुशी
तेरे ग़म में मेरा हिस्सा होगा!

मेरी कोशिश है अमल उस पे करुँ
मैने ग़ज़लों में जो लिक्खा होगा!

ज़ीस्त में रंग भरे तुमने ही "धीर"
दोष तक़दीर का कितना होगा?

</poem>
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