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दोष / कविता वाचक्नवी

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'''दोष'''

हे सूर्यदेव!
कुंति के
युगों से भीगे
झिलमिलाती झील-से
आँचल पर
शैवाल अंधेरा
गुपचुप खुभा है
चीर,
तल के जमाव तक
मृण्मय कोशों तक
नहीं पहुँच पातीं
स्वर्ण किरणें
सुनहली धूप
और पीढ़ियाँ समझती हैं
किरन-पुत्र तुम्हारा
जल में बहा दिया मैंने।
</poem>