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कुछ लोगों का मंतव्य है कि वैज्ञानिक अभिज्ञता बढ़ाने के साथ विलक्षणता कम होने लगती है तथा चिन्तनशक्ति के प्रहार से कल्पना का प्रासाद ढह जाता है । मुझे यह मान्यता ठीक नही लगती । सूर्य मण्डल के सम्वन्ध मे मनुष्य की वैज्ञानिक जानकारी बहुत बढ गयी है । क्या उस जानकारी के कारण पृथ्वी तथा ग्रह मनुष्य की दृष्टि मे और भी अधिक रम्य नही बने हैं? अपने प्रसन्न मुख पर प्रेम की ऊष्मता लिए अनन्त आकाश से कभी झुककर और कभी सीधे निर्निमेष देखने वाला नित्य प्रेमी सूर्य तथा ऋतु-परिवर्तन की विचित्रता लिये अपनी तिमिर केशराशि को पीठ पर फैलाये विविध रंगो मे सजकर विविध शब्दो के साथ स्वयं घूम घूम कर नृत्य करनेवाली पृथ्वी -- इन सब के भव्य काल्पनिक चित्र मेरे लिये आज भी दर्शनीय हैं । एक क्षुद्र ’सेल’ रमणीय सुन्दरी शकुन्तला के रूप मे विकसित हो जाता है । क्या इस वैज्ञानिक सत्य मे कल्पना की उड़ान के लिए स्थान नहीं है ? वास्तव में विज्ञान से कल्पना का क्षेत्र विस्तृत होता है तया कौतुक बढ़ता है । बचपन के दिनों की बात है । इडव मास की अंधेरी रातों में जब मैं अकेला अपने छोटे घर के बरामदे में बैठकर घने बादलों को गोद से निकल कर उसी मे छिप जानेवाली बिजली को देखता तो न जाने क्यों उछल पड़ता । आज मैं बिजली से अनभिज्ञ नही हूं । वह मेरे परिवार का ही अंग बन गयी है और इस समय मेरी मेज के पास खड़ा हो कर पतले कांच के झीने अवगुंठन के भीतर से मेरी लेखनी उसे देख-देख कर मुस्करा रही है । फिर भी विद्युत की अप्सरा के प्रति तथा उस को बांध कर रखनेवाले मनुष्य के प्रति मेरा कौतुक रत्ती भर भी कम नहीं हुआ है । अपने शरीर पर हाथ लगाने को अविवेकी कृत्य करनेवालों को भस्म कर देनेवाली बिजली क्या चरित्रगुण मे दमयन्ती से कम है ? वैज्ञानिक अभिज्ञता कवि कल्पना के पंखों को सत्य की रक्त शिरायें प्रदान करती है और उनमे उड़ान की शक्ति भर देती है ।
जारी.......
 
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