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|संग्रह= रश्मिरथी / रामधारी सिंह 'दिनकर'
}}
'शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश, :शत कोटि विष्णु जलपति, धनेश, शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल, :शत कोटि दण्डधर लोकपाल।
जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें,
'भूलोक, अतल, पाताल देख,
:गत और अनागत काल देख,
मृतकों से पटी हुई भू है,
'अम्बर में कुन्तल-जाल देख,
मुट्ठी में तीनों काल देख, :मेरा स्वरूप विकराल देख।
सब जन्म मुझी से पाते हैं,
'जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन,
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर, हँसने लगती है सृष्टि उधर!
:हँसने लगती है सृष्टि उधर!
मैं जभी मूँदता हूँ लोचन,
'बाँधने मुझे तो आया है,
यदि मुझे बाँधना चाहे मन, :पहले तो बाँध अनन्त गगन।
सूने को साध न सकता है,
'हित-वचन नहीं तूने माना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ, :अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
याचना नहीं, अब रण होगा,
'टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,
फण शेषनाग का डोलेगा, :विकराल काल मुँह खोलेगा।
दुर्योधन! रण ऐसा होगा।
'भाई पर भाई टूटेंगे,
वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे, :सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।
आखिर तू भूशायी होगा,
थी सभा सन्न, सब लोग डरे,
केवल दो नर ना अघाते थे, :धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।
कर जोड़ खड़े प्रमुदित, निर्भय,
दोनों पुकारते थे 'जय-जय'!
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