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नया पृष्ठ: <poem> उतना वह मजबूर कहाँ है इतना बड़ा फितूर कहाँ है जिनता है टूटन का ...
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उतना वह मजबूर कहाँ है
इतना बड़ा फितूर कहाँ है
जिनता है टूटन का ख़तरा
उतना चकनाचूर कहाँ है
साथ निभाएं गर ये घुटने
फिर मंज़िल भी दूर कहाँ है
ओ दीवारों के रंगसाज़ी
नींव का वह मज़दूर कहाँ है
चोर लगे तफ्तीसें करने
मिलना कोई कसूर कहाँ है
जितना तुम कहते हो उसको
उतना वह मग़रूर कहाँ है
जो सच झूठ पे चलने वाले
तेरा वह दस्तूर कहाँ है
प्रेम भरे उन गीतों वाला
चहरों पर भी नूर कहाँ
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उतना वह मजबूर कहाँ है
इतना बड़ा फितूर कहाँ है
जिनता है टूटन का ख़तरा
उतना चकनाचूर कहाँ है
साथ निभाएं गर ये घुटने
फिर मंज़िल भी दूर कहाँ है
ओ दीवारों के रंगसाज़ी
नींव का वह मज़दूर कहाँ है
चोर लगे तफ्तीसें करने
मिलना कोई कसूर कहाँ है
जितना तुम कहते हो उसको
उतना वह मग़रूर कहाँ है
जो सच झूठ पे चलने वाले
तेरा वह दस्तूर कहाँ है
प्रेम भरे उन गीतों वाला
चहरों पर भी नूर कहाँ
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