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Kavita Kosh से
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मिलके आँखें हैं छलछलायी छलछलाई क्यों!
तीर पर नाव डगमगाई क्यों!
अब उन्हें किस तरह मनाया जाय
रंज हैं जो, हँसी भी आयी आई क्यों!
लाख बातें बनायी हैं हमने
बात पर एक बन न पायी पाई क्यों?
मोल कुछ भी न मोतियों का जहाँ
कुछ तो प्याले में था ज़हर के सिवा
ज़िन्दगी पीके मुस्कुरायी मुस्कुराई क्यों!
बचके निकले गुलाब से तो आप
फिर भी आँखों में यह ललाई क्यों?
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