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|रचनाकार=फ़िराक़ गोरखपुरी
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<poem>
बे-ठिकाने है दिले-ग़मगीं ठिकाने की कहो
शमे-हिज्राँ, दोस्तो, कुछ उसके आने की कहो।

हाँ न पूछो इक गिरफ़्तारे-कफ़स की ज़िन्दगी
हमसफ़ीराने-चमन<sup>१</sup>,कुछ आसियाने की कहो

उड़ गया है मंजिले-दुशवार से ग़म का समन्द<sup>२</sup>
गेसू-ए-पुरपेचो-ख़म के ताज़याने<sup>३</sup> की कहो।

बात बनती और बातों से नज़र आती नहीं
उस निगाहे-नाज़ के बातें बनाने की कहो।

दास्ताँ वो थी जिसे दिल बुझते-बुझते कह गया
शम्‍ए - बज़्मे - ज़िन्दगी के झिलमिलाने की कहो।

कुछ दिले-मरहूम<sup>४</sup> की बातें करो, ऐ अहले-ग़म
जिससे वीराने थे आबाद, उस दिवाने की कहो।

दास्ताने - ज़िन्दगी भी किस तरह दिलचस्प है
जो अज़ल<sup>५</sup> से छिड़ गया है उस फ़साने की कहो।

ये फ़ुसूने - नीमशब, ये ख़ाब-सामाँ ख़ामुशी
सामरी फ़न आँख के जादू जगाने की कहो।

कोई क्या खायेगा यूँ सच्ची क़सम, झूठी क़सम
उस निगाहे-नाज़ के सौगन्द खाने की कहो।

शाम से की गोश-बरआवाज़<sup>६</sup> है बज़्मे-सुख़न
कुछ फ़िराक़ अपनी सुनाओ कुछ जमाने की कहो।

शब्दार्थ
१- चमन के साथी, २- घोड़ा, ३- कोड़ा, ४- मरा हुआ दिल, ५- सृष्टि, ६- आवाज़ पर कान लगाये।

</poem>
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