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{{KKRachna
|रचनाकार=साक़िब लखनवी
}}
<poem>
क़ैद करता मुझको लेकिन जब गुज़र जाती बहार।
क्या बिगड़ जाता ज़रा-सी देर में सैयाद का॥
चोट देकर आज़माते हो दिले-आशिक़ का सब्र।
काम शीशे से नहीं लेता कोई फ़ौलाद का॥
</poem>
{{KKRachna
|रचनाकार=साक़िब लखनवी
}}
<poem>
क़ैद करता मुझको लेकिन जब गुज़र जाती बहार।
क्या बिगड़ जाता ज़रा-सी देर में सैयाद का॥
चोट देकर आज़माते हो दिले-आशिक़ का सब्र।
काम शीशे से नहीं लेता कोई फ़ौलाद का॥
</poem>