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{{KKRachna
|रचनाकार=साक़िब लखनवी
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नाज़ो-अदा की चोटें, सहना तो और शै है।
ज़ख्मों को देख लेता कोई, तो देखता मैं॥

बर्क़े जमाले-वहदत! तू ही मुझे बत दे।
शोला तो दूर भड़का, फिर किसलिए जला मैं?

</poem>