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दहकती रेत पर / माधव कौशिक

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<poem>
दहकती रेत पर सब कुछ चनाब जैसा था
असल में प्यार का ज़ज़्बा सराब जैसा था ।

सुबह से शाम तलक बांचते रहे उसको
सुनहरी धूप का चेहरा किताब जैसा था ।

चुभा तो पांव में लेकिन हुआ जिगर छलनी
तुम्हारे बाग़ का कांटा गुलाब जैसा था ।

उसे मैं ज़ेहन के जंगल में किस जगह रखता
वो एक शख़्स जो परियों से ख़्वाब जैसा था ।

कोई तो बात थी हर शख़्स लाजवाब रहा
मेरा सवाल भी शायद जवाब जैसा था ।

अमीरे-शहर के सीने में कोई सांझ न थी
मगर ग़रीब का दिल तो नवाब जैसा था ।</poem>
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