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स्वप्न पट / सुमित्रानंदन पंत

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{{KKRachna
|रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत
|संग्रह=ग्राम्‍या ग्राम्यान / सुमित्रानंदन पंत
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<poem>
स्वप्न पट !
ग्राम नहीं, वे ग्राम आज
औ’ नगर न नगर जनाऽकर,
मानव कर से निखिल प्रकृति जग
संस्कृत सार्थक, सुंदर !
स्वप्न पट !<br>ग्राम देश राष्ट्र वे नहीं, वे ग्राम आज <br> औ’ नगर न नगर जनाऽकरजीर्ण जग पतझर आस समापन, <br> नील गगन है: हरित धरा: नव युग: नव मानव कर से निखिल प्रकृति जग <br>संस्कृत सार्थक, सुंदर जीवन !<br><br>
देश राष्ट्र वे नहींआज मिट गए दैन्य दुःख, <br> जीर्ण जग पतझर आस समापन,<br> सब क्षुधा तृषा के क्रंदन नील गगन है: हरित धरा:<br>भावी स्वप्नों के पट पर नव युग: नव मानव जीवन करता नर्तन !<br><br>
आज मिट डूब गए दैन्य दुःखसब तर्क वाद, <br>सब क्षुधा तृषा देशों राष्ट्रों के क्रंदन <br>रण; भावी स्वप्नों के पट पर <br>डूब गया रव घोर क्रांति का, युग जीवन करता नर्तन शांत विश्व संघर्षण !<br><br>
डूब गए सब तर्क वादजाति वर्ण की,<br>श्रेणि वर्ग की सब देशों राष्ट्रों तोड़ भित्तियाँ दुर्धर युग युग के रण;<br>डूब गया रव घोर क्रांति का, <br>बंदीगृह से शांत विश्व संघर्षण मानवता निकली बाहर !<br><br>
जाति वर्ण कीनाच रहे रवि शशि, श्रेणि वर्ग की <br> तोड़ भित्तियाँ दुर्धर<br>दिगंत में-नाच रहे ग्रह उडुगण युग युग के बंदीगृह से<br>नाच रहा भूगोल, मानवता निकली बाहर नाचते नर नारी हर्षित मन !<br><br>
नाच रहे रवि शशि, <br>फुल्ल रक्त शतदल पर शोभित दिगंत में-नाच रहे ग्रह उडुगण<br>युग लक्ष्मी लोकोज्ज्वल नाच रहा भूगोल, <br>अयुत करों से लुटा रही नाचते नर नारी हर्षित मन जन हित, जन बल, जन मंगल !<br><br>
फुल्ल रक्त शतदल पर शोभित <br>युग लक्ष्मी लोकोज्ज्वल <br>अयुत करों से लुटा रही <br>जन हित, जन बल, जन मंगल !<br><br> ग्राम नहीं वे, नगर नहीं वे, <br> मुक्त दिशा औ’ क्षण से<br>जीवन की क्षुद्रता निखिल <br>
मिट गई मनुज जीवन से !
</poem>
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