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{{KKRachna
|रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत
|संग्रह=ग्राम्या ग्राम्यान / सुमित्रानंदन पंत
}}
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<poem>
स्वप्न पट !
ग्राम नहीं, वे ग्राम आज
औ’ नगर न नगर जनाऽकर,
मानव कर से निखिल प्रकृति जग
संस्कृत सार्थक, सुंदर !
मिट गई मनुज जीवन से !
</poem>