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बरस तो सकता नहीं, रहता मगर बेचैन है।<br><br>
::भीष्म ने देखा गगन की ओर<br>::मापते, मानो, युधिष्ठिर के हृदय का छोर;<br>::और बोले, 'हाय नर के भाग !<br>::क्या कभी तू भी तिमिर के पार<br>::उस महत् आदर्श के जग में सकेगा जाग,<br>::एक नर के प्राण में जो हो उठा साकार है<br>::आज दुख से, खेद से, निर्वेद के आघात से?'<br><br>
औ' युधिष्ठिर से कहा, "तूफान देखा है कभी?<br>
छिन्न फूलों के दलों से, पक्षियों की देह से।<br><br>
::पर शिराएँ जिस महीरुह की अतल में हैं गड़ी,<br>::वह नहीं भयभीत होता क्रूर झंझावात से।<br>::सीस पर बहता हुआ तूफान जाता है चला,<br>::नोचता कुछ पत्र या कुछ डालियों को तोड़ता।<br>::किन्तु, इसके बाद जो कुछ शेष रह जाता, उसे,<br>::(वन-विभव के क्षय, वनानी के करुण वैधव्य को)<br>::देखता जीवित महीरुह शोक से, निर्वेद से,<br>::क्लान्त पत्रों को झुकाये, स्तब्ध, मौनाकाश में,<br>::सोचता, 'है भेजती हुमको प्रकृति तूफ़ान क्यों?'<br><br>
पर नहीं यह ज्ञात, उस जड़ वृक्ष को,<br>
फूटना जिसका सहज अनिवार्य है।<br><br>
::यों ही, नरों में भी विकारों की शिखाएँ आग-सी<br>::एक से मिल एक जलती हैं प्रचण्डावेग से,<br>::तप्त होता क्षुद्र अन्तर्व्योम पहले व्यक्ति का,<br>::और तब उठता धधक समुदाय का आकाश भी<br>::क्षोभ से, दाहक घृणा से, गरल, ईर्ष्या, द्वेष से।<br>::भट्ठियाँ इस भाँति जब तैयार होती हैं, तभी<br>::युद्ध का ज्वालामुखी है फूटता<br>::राजनैतिक उलझनों के ब्याज से<br>::या कि देशप्रेम का अवलम्ब ले।<br><br>
किन्तु, सबके मूल में रहता हलाहल है वही,<br>
फैलता है जो घृणा से, स्वर्थमय विद्वेष से।<br><br>
::युद्ध को पहचानते सब लोग हैं,<br>::जानते हैं, युद्ध का परिणाम अन्तिम ध्वंस है!<br>::सत्य ही तो, कोटि का वध पाँच के सुख के लिए!<br><br>