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|रचनाकार =मुनव्वर राना
}}
[[Category:ग़ज़ल]]{{KKCatGhazal}}<poem>गले मिलने को आपस में दुआयें दुआएँ रोज़ आती हैंअभी मस्ज़िद के दरवाज़े पे माएँ रोज़ आती हैं
अभी मस्जिद रोशन हैं चाहत के दरवाज़े पे मायें दीये हम सबकी आँखों मेंबुझाने के लिये पागल हवाएँ रोज़ आती हैं
कोई मरता नहीं है, हाँ मगर सब टूट जाते हैं
हमारे शहर में ऎसी वबाएँ<ref>बीमारियाँ</ref>रोज़ आती हैं
अभी रोशन हैं दुनिया की चाहत के दिये हम सबकी आँखों मेंने मिरा पीछा नहीं छोड़ाअभी मुझको बुलाने दाश्ताएँ<ref>रखैलें</ref>रोज़ आती हैं
बुझाने के लिये पागल हवायें रोज़ आती हैं  कोई मरता नहीं है हाँ मगर सब टूट जाते हैं हमारे शहर में ऎसी वबायें रोज़ आती हैं  अभी दुनिया की चाहत ने मिरा पीछा नहीं छोड़ा अभी मुझको बुलाने दाश्तायें रोज़ आती हैं  ये सच है नफ़रतों की आग ने सब कुछ जला डलाडालामगर उम्मीद की ठंडी हवायें हवाएँ रोज़ आती हैं</poem> वबायें= बीमारियाँ; दाश्तायें=रखैलें{{KKMeaning}}
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