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<poem>
फिर इक दिन ऐसा आएगा
आँखों के दिये बुझ जाएंगेजाएँगे
हाथों के कँवल कुम्हलाएँगे
और बर्गे-ज़बाँ से नुत्क़ो-सदा२सदा
की हर तितली उड़ जाएगी
इक काले समन्दर की तह में
हर ची़ज़ उठा दी जाएगी
फिर कोई नहीं ये पूछेगा
लेकिन मैं यहाँ फिर आऊँगा
बच्चों के दहन२ दहन<ref>मुँह </ref> से बोलूँगाचिडि़यों चिड़ियों की ज़बाँ से गाऊँगा
जब बीज हँसेंगे धरती में
और कोंपलें अपनी उँगली से
मिट्टी की तहों को छेडे़गीछेड़ेंगी
मैं पत्ती-पत्ती, कली-कली
अपनी आँखें फिर खोलूँगा
सरसब्ज़ हथेली पर लेकर
शबनम के क़तरे तोलूँगा
मैं रंगे-हिना<ref>मेँहदी का रंग </ref>, आहंगे-ग़ज़ल<ref>ग़ज़ल का संतुलन</ref>अन्दाज़े-सुख़न <ref> काव्य की शैली </ref> बन जाऊँगारुख़्सारे-उरूसेउरूज़े-नौ <ref>नए खिले हुए चेहरे और यौवन के उभार</ref> की तरह
हर आँचल से छन जाऊँगा
जोड़ों की हवाएँ दामन में
जब फ़स्ले-खि़ज़ाँ४ ख़िज़ाँ<ref> पतझड़ की फ़स्ल </ref> को लाएँगी
रहरी के जवाँ क़दमों के तले
सूखे हुए पत्तों से मेरे
और सारा ज़माना देखेगा
हर आशिक़ है ‘सरदार’ यहाँ
हर माशूक ‘सुलताना’ माशूक़ा‘सुलताना’ है
मैं एक गुरेज़ाँ लम्हा <ref>बीत जाने वाला क्षण </ref> हूँअय्याम के अफ़्सूँ-खा़ने <ref>जीवन के जादुई घर </ref> में
मैं एक तड़पता क़तरा हूँ
मैं सोता हूँ और जागता हूँ
और जाग के फिर सो जाता हूँ
सदियों का पुराना खेल हूँ मैं
मैं मर के अमर हो जाता हूँ