792 bytes added,
15:58, 28 नवम्बर 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=भारतेंदु हरिश्चंद्र
}}
<poem>
जागे माई सुंदर स्यामा-स्याम।
कछु अलसात जँभात परस्पर टूटि रही मोतिन की दाम।
अधखुले नैन प्रेम की चितवनि, आधे-आधे वचन ललाम।
बिलुलति अलक मरगजे बागे नख-छत उरसि मुदाम।
संगम गुन गावत ललितादिक, बाजत बीन तीन सुर ग्राम।
’हरीचंद’ यह छबि लखि प्रमुदित तृन तोरत ब्रज-वाम॥
</poem>