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माँ के बारे में / अनिल जनविजय

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|संग्रह=माँ, बापू कब आएंगे / अनिल जनविजय
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माँ
 
तुम कभी नहीं हारीं
 
कहीं नहीं हारीं
 
जीतती रहीं
 
अंत तक निरन्तर
 
कच-कच कर
 
टूटकर बिखरते हुए
 
बार-बार
 
गिरकर उठते हुए
 
घमासान युद्ध तुम लड़ती रहीं
 
द्वंद्व के अनन्त मोरचों पर
 
तुम कभी नहीं डरीं
 
दहकती रहीं
 
अनबुझ सफ़ेद आग बन
 
लहकती रही
 
तुम्हारे भीतर जीने की ललक
 
चुनौती बनी रहीं
 
तुम जुल्मी दिनों के सामने
 
चक्की की तरह
 
घूमते रहे दिन-रात
 
पिसती रहीं तुम
 
कराही नहीं, तड़पी नहीं
 
करती रहीं चुपचाप संतापित संघर्ष
 
जब तक तुम रहीं
 
फिर एक दिन तुम
 
आसमान में उड़ीं
 
उड़ती रहीं, बढ़ती रहीं
 
अनंत को चली गईं
 
खो गईं
 
1980 में रचित
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