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Kavita Kosh से
प्रार्थनाएँ पर नहीं रुकतीं
देव-प्रतिमाएँ सजीव हो-हो नहीं देतीं श्राप
सुसंस्कृति अजगर के विशाल मिखमुख-सी
खुल जाती सबकुछ के स्वीकार के लिए
जीवों के योगक्षेम नि:शब्द वहन करती
तो बरसों पुराने अनाम किसी शिल्पी की
कलात्मक कांस्य-प्रतिमा पर कभी.
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