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|रचनाकार=मनोहर 'साग़र' पालमपुरी
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कैसा मेरे शऊर ने धोका दिया मुझे
मुझ को हिसार—ए—ज़ात हिसार-ए-ज़ात से ख़ुद ही निकाल कर
इक हुस्न—ए—दिल हुस्न-ए-दिल फ़रेब ने ठुकरा दिया मुझे
इक संग—ए—मील—सा संग-ए-मील-सा था मगर कामनाओं ने
रुसवाइयों के जाल में उलझा दिया मुझे
‘साग़र’! वफ़ा की तुंद हवाओं ने आख़िरश