भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बादल / अलेक्सान्दर पूश्किन

6 bytes removed, 07:42, 26 दिसम्बर 2009
बस काफ़ी है, अब तुम जाओ! वह क्षण बीत गया
धरती सरस हुई, झंझ्हा झंझा का, अब बल रीत गया,
और पवन जो मन्द-मन्द, तरू, पत्ते सहलाए
सान्त शान्त गगन से तुझे उड़ा निश्चय ही ले जाए।
'''रचनाकाल : 18231835'''
</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
53,865
edits